कहां से ऐलियै अहां आर?- हर किसी के पास यही सवाल था कि हम कहां से आए हैं। क्यों? इसका उत्तर यहीं दिख भी रहा था। कहने को सड़क, लेकिन कहीं कीचड़-पानी और कहीं कंकड़-धूल, बस! क्या बिहार फर्स्ट और क्या बिहारी फर्स्ट!…इलाके में हाईस्कूल नहीं। हर बारिश-बाढ़ में बंद होने वाला मिडिल स्कूल जरूर है। रात क्या, दिन में भी अंधेरा। कोई एक भी विकास पर बात नहीं करना चाहता। कोई पासवान परिवार के बारे में एक लाइन बात नहीं करना चाहता। कुछ बुजुर्ग मुंह खोलने लगे तो बेटे-बहू ने चुप करा दिया।
खगड़िया जिले के इसी गांव से निकले स्व. रामविलास पासवान केंद्रीय मंत्री बने। एक बार नहीं, कई बार। हां, गांव वालों को गहरा आघात एक और बार लगा, जब उनके ‘साहेब’ के निधन के बाद पार्थिव शरीर बिहार आया, मगर शहरबन्नी नहीं। कैमरे के सामने नहीं, लेकिन ऑफ रिकॉर्ड गांव वाले यह जरूर बोल पड़ते हैं- “चेरागो जी कहां एन्ने देखलखनी कि यहां ऐथिन र साहेब के बोडियो लेके। कुच्छो छै जे ऐ ठन?” (चिराग जी ने भी इधर कहां देखा कि पिताजी की डेडबॉडी लेकर यहां आते। यहां कुछ है कहां?)
सड़क का हाल खराब, बाढ़ में मवेशियों का चारा भी नाव भरोसे
जिला मुख्यालय खगड़िया से 23 किलोमीटर ही दूर है देहात से भी गया-गुजरा शहरबन्नी गांव। बाइक से भी पहुंचने में एक घंटे लग जाते हैं। स्थानीय लोग छोटी कार से जाने को मना करते हैं। कहते हैं- “जाइए तो स्टेपनी ठीक रखिएगा, टायर खूब पंक्चर होता है।” बेगूसराय जिले का बखरी सदियों से इस देहात का शहर रहा है। बाजार के लिए अब भी गांव के बहुत सारे लोग 25 किलोमीटर दूर रोज बखरी आते हैं। बखरी की ओर से भी बाइक को ही लोगों ने बेहतर विकल्प बताया तो भास्कर की टीम किसी तरह पहुंची।
जहां शहरबन्नी शून्य किलोमीटर का माइलस्टोन नजर आया, वहां से बाएं बस भी किसी तरह एक छोटे पुल से जाती दिखी। मतलब, बड़ी गाड़ियां आ-जा रही हैं। लेकिन, सड़क के नाम पर जो भी रास्ता है, उस पर गांव वालों को बाढ़ के समय भरोसा नहीं रहता। बाढ़ पूरी न आए, अधूरी भी आए तो नाव ही असल सहारा रहता है।
सितंबर अंत और अक्टूबर की शुरुआत तक हर साल ऐसे ही कई घर पानी में डूबे रहते हैं। फुलतोड़ा घाट पुल के पास छोटी दुकानें हैं, जिन्हें रोजमर्रा की छोटी जरूरतों के लिए लोग बड़ी मानकर जी रहे हैं। इस पुल के बगल में नावें लगी थीं। नावों पर लोग जरूरत के सामान के साथ दिखे। एक नाव पर मवेशियों के लिए भूसा भरा था। शहरबन्नी के निचले इलाके जलमग्न थे, इसलिए डूबी सड़क से जाने की जगह नाव से ही भूसा भेजा जा रहा था। पता चला कि बाढ़ ज्यादा हो तो गांव वाले मवेशियों को लेकर बखरी या खगड़िया निकल जाते हैं।
कैमरे पर कुछ नहीं कहा, कैमरा हटा तो कहा- कुछ बोले तो फसाद हो जाएगा
मुख्यमंत्री बनकर बिहार और बिहारियों की जिंदगी बदलने की बात कर रहे चिराग पासवान के दादाघर की ओर बढ़ते हुए सड़क और खराब दिखने लगी। कथित मेन रोड को छोड़ हर तरफ पानी ही पानी। रास्ते के दोनों ओर मवेशी और मक्के के सूखे पौधों का बोझा (गांठ)। गांव की शुरू से ऐसी ही हालत है या कभी बदले थे दिन? यह सवाल वाजिब था, इसलिए बुजुर्गों से बात करने की कोशिश की। घर पर कोई नहीं मिला।
बचपन के मित्रों से मिलना चाहा तो मंत्रीजी के गोतिया में भतीजे शंभू पासवान के घर जाना पड़ा, लेकिन मीडिया का नाम सुनते ही वह फक्क पड़ गया। हम लोग क्या पूछ लें और क्या जवाब देंगे…ऐसा ही मुंह बना लिया। दिवंगत केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बचपन के मित्र रामविलास यादव से भेंट हो गई। वह कुछ बोलने ही वाले थे कि पत्नी, पोता और बहू एक साथ कूद पड़े। ऑफ कैमरा जानना चाहा तो कहा कि कुछ बोलेंगे तो बेकार फसाद हो जाएगा। एक और बुजुर्ग को ढूंढ निकाला तो उनके बेटे ने मना कर दिया कि तबीयत ठीक नहीं, जबकि वह दूसरे लोगों से सहज बात कर रहे थे।
बुजुर्ग ने कहा- मंत्रीजी ने पोते को स्टील फैक्ट्री में नौकरी दी थी
कोई बात कर ले, कुछ बताए, इस आस में कीचड़ के बीच संकरे रास्ते से रामलखन साह के घर पहुंचे। बेटा मिला। उसने बताया कि उसके पिता रामविलासजी से सीनियर हैं। राजनीति में भी काफी समय तक साथ रहे। साह आए तो कहा कि पासवान जी मंत्री थे तो पोते को स्टील फैक्ट्री में नौकरी दी थी।
एक अच्छी बात सुनने को मिली तो आगे दिवंगत मंत्री के माता-पिता, चाचा-चाची के नाम पर बने स्मारक भवन को देखकर लगा कि यहां कुछ ठीकठाक भी है। यहां के सेवक विष्णुदेव पंडित ने कहा कि करीब 10 साल पहले मंत्रीजी माताजी की पुण्यतिथि पर आए थे। उसके बाद पिछले साल रामचंद्र पासवान जी के श्राद्धकर्म में आए थे। घूमते-टहलते बुजुर्ग लालू यादव मिले तो कहा- “दहाड़ (बाढ़) से हर साल पूरा इलाका खराब हो रहा है। 15 दिन पहले घरो में पानी भरल था। इ पुलो जो देख रहे हैं न, उ भी मंत्रिये जी का दिया हुआ है। एक बार बहुते लोग डूब गया था तो साहेबे पुल दिए थे।”
अपना मानते तब न कुछ करते, लिखने-छापने से कुछ नहीं होगा
50 वर्षीय सुमिता को बात रखने में कोई परेशानी नहीं दिखी। वो बिना लागलपेट कहती हैं- “बेमार पड़ै त कोय हस्पताल नै छै इ गाम में। दसमा पढ़ै ल इस्कूलो दोसरे गाम मेघौना जाय छै बचवा आर” (बीमार पड़े तो कोई अस्पताल नहीं है इस गांव में। दसवीं की पढ़ाई के लिए यहां के बच्चे दूसरे गांव मेघौना जाते हैं)।
करीब चार घंटे तक यहां रहने पर भी गिने-चुने लोग ही खुले। मुकेश यादव ने कहा- “क्या कहियेगा, पासवान परिवार ने यहां के लिए कुच्छो नहीं किया। कोई विकास नहीं किया है। देखिए, जब अपना मानते तो करते न!” यहां जुटी भीड़ में किसी ने पीछे से आवाज दी- पारसो जी अब कहां कुच्छो करते हैं जो हम चेराग जी के लिए सोचें। जाने दीजिए, लिख-पढ़ के भी कुच्छो नै होगा, झूट्ठो हमहीं लोग परेशान होंगे अउर कुच्छो नै (पारस जी भी अब कहां कुछ करते हैं कि हम चिराग जी से उम्मीद करें। यह सब लिखने-छापने से कुछ नहीं होगा, बेकार हमलोग परेशान होंगे)। जब इनसे नाम पूछा तो साफ मना कर दिया- छापिएगा भी नहीं।
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