

रोजगार की तलाश में अर्जुन प्रसाद पटना चले आए थे। उनका बचपन से ही सपना था कि कोई अच्छी नौकरी मिल जाए। उन्होंने सोचा था कि अगर कोई सरकारी नौकरी मिल जाएगी तब परिवार को आर्थिक परेशानियों से निजात मिल जाएगी। अब तो शादी भी हो गई थी और बच्चों की जिम्मेदारी भी कंधे पर थी। तमाम प्रयासों के बावजूद कुछ नहीं हो सका। किसी ने सलाह दी कि पढ़ने-पढ़ाने का शौक है, बीएड कर लो, शिक्षक की नौकरी मिल ही जाएगी। अर्जुन प्रसाद ने सोचा कि ठीक है। पढ़ने-पढ़ाने का शौक तो बचपन से ही है, शिक्षक ही बन जाते हैं।
लेकिन बीएड की पढ़ाई के लिए उनकी जेब इजाजत नहीं दे रही थी। पटना में कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे ताकि शहर में किसी तरह से गुजारा हो जाए। धीरे-धीरे उनका बेटा पुष्कर कुमार भी बड़ा हो रहा था। अब बच्चों की पढ़ाई की चिंता उन्हें सता रही थी। रोज सुबह-सुबह अर्जुन प्रसाद काम की तलाश में निकल जाते और शाम को खाली हाथ वापस आ जाते थे। एक दिन उनको उम्मीद की एक छोटी सी किरण दिखाई दी जब मोहल्ले के ही एक छोटे से प्राइवेट स्कूल ने उन्हें पढ़ाने का काम दे दिया।
पैसा बहुत कम मिल रहा था फिर भी उन्होंने परिवार को साथ रखने का फैसला ले लिया। जिस स्कूल में अर्जुन प्रसाद पढ़ाते थे, उसी स्कूल के व्यवस्थापक को निवेदन करके उन्होंने पुष्कर का एडमिशन निःशुल्क करवा दिया। पिता-पुत्र सुबह-सुबह तैयार होकर स्कूल जाते थे। पुष्कर की मां पढ़ी-लिखी नहीं थीं फिर भी शिक्षा का महत्व समझती थीं। पुष्कर क्लास में बहुत ही अच्छा प्रदर्शन कर रहा था। उसके टैलेंट और मेहनत की चर्चा पूरे स्कूल में होने लगी। अर्जुन प्रसाद ने सोचा कि इस वजह से स्कूल में उनकी प्रतिष्ठा के साथ-साथ कुछ वेतन भी बढ़ जाएगा।
तब जिंदगी में कुछ सहूलियत हो जाएगी। लेकिन, हुआ इसका उल्टा। प्रिंसिपल ने फीस के लिए अब दबाव बनाना शुरू कर दिया। एक तो घर की गाड़ी बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे खिंच रही थी और अब फीस देने की बात। अर्जुन प्रसाद ने प्रिंसिपल को समझाने का बहुत प्रयास किया। बहुत विनती की। लेकिन, स्कूल बिना पैसे के पुष्कर को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुआ। अंत में हारकर अर्जुन प्रसाद ने पुष्कर का एडमिशन एक सरकारी स्कूल में करवा दिया। अब रोज अर्जुन प्रसाद अपने बेटे के साथ ही घर से निकलते थे।
रास्ते में सरकारी स्कूल में बेटे को छोड़ते हुए आगे अपने स्कूल के लिए बढ़ जाते। शाम को अर्जुन प्रसाद जब भी पुष्कर को पढ़ाने के लिए बैठते थे, तब समझाते थे कि बेटा पढ़ाई ही एक मात्र रास्ता है जो तुम्हें गरीबी के इस अंधेरे से बाहर निकाल सकता है। इन बातों को सुनने के बाद पुष्कर किताब छोड़ने का नाम ही नहीं लेता था। पुष्कर बताता है कि किताबें भी नहीं होती थीं उसके पास। तब बगल में रहने वाले एक पुजारी जी अपने यजमान से उसके लिए कुछ किताबें मांगकर ले आते थे। पुष्कर दसवीं बोर्ड अच्छे अंकों से पास कर गया था। घर में सब खुश थे।
पटना में रहने के कारण सुपर 30 के बारे में उसको डिटेल जानकारी तो थी ही। मेरे पास आकर पुष्कर ने पूरी कहानी बताई और फिर सुपर 30 में शामिल हो गया। दुबला-पतला, सीधा-सादा पुष्कर का चेहरा आज भी याद है। खूब मेहनती था। कई दफा तो मुझे मना करना पड़ता था कि अब मत पढ़ो थोड़ा आराम कर लो। जैसे-जैसे आईआईटी प्रवेश परीक्षा नजदीक आ रही थी पुष्कर गंभीर होता जा रहा था। आईआईटी का रिजल्ट आ चुका था और बहुत ही अच्छे रैंक के साथ पुष्कर क्वालीफाय कर गया था। इस वर्ष तो आईआईटी खड़गपुर से उसकी पढ़ाई पूरी भी हो चुकी है। एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी भी लग गई है।
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